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रीति-ग्रंथकार कवि

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बिहारी का 'गागर में सागर' भरने को जो गुण इतना प्रसिद्ध है वह बहुत कुछ रूढ़ि की स्थापना से ही संभव हुआ है। यदि नायिकाभेद की प्रथा इतने जोर शोर से न चल गई होती तो बिहारी को इस प्रकार की पहेली बुझाने का साहस न होता।

अलंकारों की योजना भी इस कवि ने बड़ी निपुणता से की है। किसी-किसी दोहे में कई अलंकार उलझे पड़े है, पर उनके कारण कहीं भद्दापन नहीं आया है। 'असंगति' और 'विरोधाभास' की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं––

दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत-चतुर-चित प्रीति। परति गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति॥
तंत्रीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग॥

दो एक जगह व्यंग्य अलंकार भी बड़े अच्छे ढंग से आए हैं। इस दोहे में रूपक व्यंग्य है––

करे चाह सों चुटकि कै, खरे उडौहैं मैन।‌‌ लाज नवाए तरफरत, करत खूँद सी नैन॥

शृंगार के संचारी भावों की व्यंजना भी ऐसी मर्मस्पर्शिनी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुँह से बार बार सुने जाते हैं। इस स्मरण में कैसी गंभीर तन्मयता है––

सघन कुंज, छाया सुखद, सीतल मंद समीर। मन ह्वै जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर॥

विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त बिहारी ने सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें बहुत सी नीति-संबंधिनी है। सूक्तियों में वर्णन-वैचित्र्य या शब्द-वैचित्र्य ही प्रधान रहता है अतः उनमें से कुछ एक की ही गणना असल काव्य में हो सकती है। केवल शब्द-वैचित्र्य के लिये बिहारी ने बहुत कम दोहे रचे है। कुछ दोहे यहाँ दिए जाते हैं––

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि, सगुनौं दीपक-देह। तऊ प्रकास करै तितो, भरिए जितो सनेह॥
कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय। वह खांए बौराये नर, यह पाए बौराय॥
तोपर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान। तू मोइन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥

बिहारी के बहुत से दोहे "आर्यासप्तशती" और "गाथासप्तशती" की छाया