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हिंदी-साहित्य का इतिहास

अलि हौं तौ गई जमुना जल को सो कहा कहौं बीर! बिपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई में गागरि सीस धरी॥
रपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयो, कवि मंडन ह्वै कै बिहाल गिरी।
चिर जीवहु नंद के बारो, अरी, गहि बाहँ गरीब ने ठाढ़ी करी॥

(६) मतिराम––ये रीतिकाल के मुख्य, कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध है। ये तिकवाँपुर (जिला कानपुर) में संवत् १६७४ के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराज भावसिंह के यहाँ बहुत काल तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललितललाम' नामक अलंकार को ग्रंथ संवत् १७१६ और १७४५ के बीच किसी समय बनाया। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल का ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं हैं। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और है––'साहित्यसार' और 'लक्षण-शृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होने एक 'मतिराम-सतसई' भी बनाई जो हिंदी-पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।

मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरसता अत्यंत स्वाभाविक हैं, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है––केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिये अशक्त शब्दों की भर्ती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथवाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम कवियों में मिलती है, कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में बेतरह जकड़ी पाई जाती हैं। सारांश यह कि मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादयूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करनेवालों में बहुत ही कम मिलती है।

भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम है और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ। भावों को असमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी जाने के फेर में ये नहीं पड़े हैं। नायिका के विरहताप को लेकर बिहारी के