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हिंदी-साहित्य का इतिहास

होत रहैं मन यों मतिराम, कहूँ बन जाय बडों तप कीजै।
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरारस पीजै॥



केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
'प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो', भीतर बैठि कै बान सुनाई॥
जेठी पठाई गई दुलही, हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्ही, सुनेह की देहरि पै धरि आई॥



दो अनंद सो आँगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
आँखिन तें गिरे आँसू के बूँद, सुहास गयो उड़ि हँस की नाई॥



सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चूम,
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।
कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में,
काहू के न हिम्मत हिम में उलहति है॥
सबुसाल नंद के प्रताप की लपट सब,
गरब गनीम-बरगीन को दहति हैं।
पति पातसाह की, इजति उमरावन की,
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है॥


(७) भूषण––वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् १६७० है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें कविभूषण की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इसका असल नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीर-काव्य के नायक हुए, छत्रपति महाराज-शिवाजी-मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा नाम हुआ। कहते है कि महाराज, छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपनी कंधा लगाया था जिसपर इन्होंने कहा था––"सिवा को