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रीति-ग्रंथकार कवि

(१०) कालिदास त्रिवेदी––ये अंतर्वेद के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। जान पड़ता है कि संवत् १७४५ वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। इस लड़ाई को औरंगजेब की प्रशंसा से युक्त वर्णन इन्होंने इस प्रकार किया––

गढ़न गढ़ी से गढ़ी, महल मढ़ी से मढ़ि,
बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।
कालिदास कोप्यो वीर औलिया अलमगीर,
तीर तरवारि गहि पुहमी पराई में॥
बूँद तें निकसि महिमंडल घमंड मची,
लोहू की लहरि हिमगिरि की तराई में।
गाडि के सुझंडा आड कीनी बादसाही, तातें,
डकरी चमुंडा गोलकुंडा की लराई में॥

कालिदास का जंबू-नरेश जोगजीत सिंह के यहाँ भी रहना पाया जाता है। जिनके लिये संवत् १७४९ में इन्होंने 'वरवधू-विनोद' बनाया। यह नायिकाभेद और नखशिख की पुस्तक है। बत्तीस कवितो की इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'जँजीराबंद' भी है। 'राधा-माधव-बुधमिलन-विनोद' नाम का एक कोई और ग्रंथ इनका खोज में मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रहग्रंथ 'कालिदास हजारा' बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। इस संग्रह के संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इसमें संवत् १४८१ से लेकर संवत् १७७६ तक के २१२ कवियों के १००० पद्य संगृहीत हैं। कवियों के काल आदि के निर्णय में यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है। इनके पुत्र कवींद्र और पौत्र दूलह भी बड़े अच्छे कवि हुए।

ये एक अभ्यस्त और निपुण कवि थे। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत सुने जाते है जिनसे इनकी सरस हृदयता का अच्छा परिचय मिलता है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

चूमौं करकज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान, कान्ह! मो तन निहारि दै।