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हिंदी-साहित्य का इतिहास

कालिदास कहै मेरे पास हरै हेरि हेरि,
माथे धरि मुकुट, लकुट कर डारि दै॥
कुँवर कन्हैया मुखचंद्र की जुन्हैया, चारु,
लोचन-चकोरन को प्यासन निवारि दै।
मेरे कर मेहँदी लगी है, नंदलाल प्यारे!
लट उरझी है नकबेसर सँभारि दै॥


हाथ हँसि दीन्हौं भीति अंतर वरसि प्यारी,
देखत ही छको मति कान्हर प्रवीन की।
निकस्यो झरोखे माँझ बिगस्यौ कमल सम,
ललित अँगूठी तामें चमक चुनील की॥
कालिदास तैसी लाल मेंहँदी के बुंदन की,
चारु नख-चंदन की लाल अँगुरीन की।
कैसी छवि छाजति है छाप और छलान की सु
कंकन चुरीन की जडाऊ पहुँचीन की॥

(११) राम––शिवसिंहसरोज में इनका जन्म-संवत् १७०३ लिखी हैं और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के हजारा में हैं। इनका नायिकाभेद का एक ग्रंथ शृंगारसौरभ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम हैं। खोज में एक "हनुमान नाटक" भी इनका पाया गया है। शिवसिंह के अनुसार इनका कविता-काल संवत् १७३० के लगभग माना जा सकता है। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

उमड़ि घुमडिं घन छोंडत अखंड धार,
चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै।
बरही पपीहा भेक पिक खग टेरत हैं,
धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै॥
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,
पीतम को रहीं मैं तो बरजि बरजि कै।