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रीति-ग्रंथकार कवि

विनोद, (५) प्रेम-तरंग, (६) राग-रत्नाकर, (७) कुशल-विलास, (८) देव-चरित्र, (९) प्रेम-चंद्रिका, (१०) जाति-विलास, (११) रस-विलास, (१२) काव्य-रसायन या शब्द-रसायन, (१३) सुख-सागर-तरंग, (१४) वृक्ष-विलास, (१५) पावस-विलास, (१६) ब्रह्म-दर्शन पचीसी, (१७) तत्व-दर्शन पचीसी, (१८) आत्म-दर्शन पचीसी, (१९) जगद्दर्शन पचीसी, (२०) रसानंद लहरी, (२१) प्रेमदीपिका, (२२) सुमिल-विनोद, (२३) राधिका-विलास, (२४) नीति शतक और (२५) नख-शिख-प्रेमदर्शन।

ग्रंथों की अधिक संख्या के संबंध में यह जान रखना भी आवश्यक है कि देवजी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर उधर दूसरे क्रम से रखकर एक नया ग्रंथ प्रायः तैयार कर दिया करते थे। इससे वे ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। 'सुखसागर तरंग' तो प्रायः अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। 'राग-रत्नाकर' में राग-रागिनियो के स्वरूप का वर्णन है। 'अष्टयाम' तो रात-दिन के भोग-विलास की दिनचर्या है जो मानो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन-विधि का ब्योरी पेश करने के लिये बनी थी। 'ब्रह्मदर्शन-पचीसी' और 'तत्त्व-दर्शन-पचीसी' में जो विरक्ति का भाव हैं वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो।

ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्य-शास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धांत-निरूपण का मार्ग नहीं पा सकें। बात यह थी कि-एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ; विचार-पद्धति के उत्कर्ष-साधन के योग्य-वह न हो पाई। दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परिपाटी थी। अतः आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता। कुछ लोगो ने भक्तिवश अवश्य और बहुत सी बातों के साथ इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना को श्रेय भी देना चाहा है। वे ऐसे ही लोग हैं जिन्हें "तात्पर्य वृत्ति" एक नया