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प्रकरण २

अपभ्रंश काव्य

जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश-साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए पहले जैसे 'गाथा' या ‘गाहा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे “दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा । इस पुरानी प्रचलित काव्यभाषा मे नीति, शृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थी, जैन और बौद्ध धर्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिये भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य-रचना के लिये रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला । जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक-वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिये अपभ्रश शब्द का व्यवहार होने लगा।

भरत मुनि (विक्रम तीसरी शती) ने 'अपभ्रंश’ नाम न देकर लोकभाषा को ‘देशभाषा' ही कहा है। वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश' में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है । अपभ्रंश' नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिससे उसने अपने पिता गुहसैन ( वि० सं० ६५० के पहले ) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है। भामह (विक्रम 9 वीं शती ) ने भी तीनों भाषा का उल्लेख किया है । बाण ने ‘हर्षचरित में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है । इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमे विक्रम की सातवीं शताब्दी से मिलता है । उस काल की रचना के नमूने बौद्धो की वज्रयान शाखा के सिद्धों की कृतियों के बीच मिले है ।