पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२६८
हिंदी-साहित्य का इतिहास

सखी के सकोच, गुरु-सोच मृगलोचनि
रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात।
दैव वै सुभाय मुसकाय उठि गए, यहाँ
सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात॥
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह-बिथा,
हाय हाय करि पछिताय न कछू सुहात।
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि-भरि ढरि
गोरो-गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात॥


झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानों,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चली झूलिबे को आज'
फूली ना समानी भई ऐसी हौ मगन मैं॥
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोडी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न धन हैं, न धनश्याम
वेई छाई बूँदै मेरे आँसु ह्वै दृगन मे॥


साँसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरी।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
'देव' जियै मिलिबेई की आस कै, आसहु पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥


जब तें कुँवर कान्ह रावरी, कलानिधान!
कान पूरी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें देव देखी देवता सी हँसति सी,
रीझति सी, खीझति सी, रूठति रिसानी सी॥