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रीति-ग्रंथकार कवि

छोही सी, छली सी, छीन लीनी सी, छकी सी, छिन
जकी सी, टकी सी, लगी थकी थहरानी सी।
बीधी सी, बँधी सी, विष बूड़ति बिमोहित सी,
बैठी बाल बकती, बिलोकति बिकानी सी॥


'देव' मैं सीस बसायो सनैह सों, भाल मृगम्मद-बिंदु कै भाख्यो।
कंचुकि में चुपयो करि चोवा, लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो॥
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवत सिंगार कै चाख्यो।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो॥


धार में धाय धँसी निरधार ह्वै, जाय फँसी, उक़सीं न उधेरी।
री! अगराथ गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न, घिरीं नहिं घेरी॥
'देव', कछू अपनो बस ना, रस-लालच लाल चितै भई चेरी।
बेगि ही बूडि गई पँखियाँ, अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी॥

(१४) श्रीधर या मुरलीधर––ये प्रयाग के रहनेवाले ब्राह्मण थे और सवत् १७३७ के लगभग उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अभी तक इनका "जगनामा" ही प्रकाशित हुआ है जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदार के युद्ध का वर्णन है, पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनके, बनाए कई रीति-ग्रंथों का उल्लेख किया है; जैसे, नायिकाभेद, चित्रकाव्य आदि। इनका कविताकाल संवत् १७६० के आगे माना जा सकता हैं।

(१५) सूरति मिश्र––ये आगरे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं लिखा है–– "सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास"। इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत् १७६६ में और बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत् १७९४ में लिखी। अतः इनका कविता काल विक्रम की अठारहवी शताब्दी को अंतिम चरण माना जा सकता है।

ये नसरुल्लाखाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने 'बिहारी-सतसई', 'कविप्रिया'