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हिंदी-साहित्य का इतिहास

और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं जिनसे इनके साहित्य-ज्ञान और मासिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में है। इन टीकाओं के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल-पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीति-ग्रंथ रचे है––

१––अलंकार माला, २––रसरत्न माला ३––सरस रस, ४––रस-ग्राहक चद्रिका ५––नख शिख, ६––काव्य सिद्धांत, ७––रस-रत्नाकर।

अलंकार-माला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्रायः एक ही दोहे में मिलते हैं। जैसे––

(क) हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि॥
(ख) सो असँगति, कारन अवर, कारज औरे थान॥
चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान॥

इनके ग्रंथ सब मिले नहीं हैं। जितने मिले है उनसे ये अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं। इनकी कविता में तो कोई विशेषता नही जान पढती पर साहित्य का उपकार इन्होंने बहुत कुछ किया है। 'नख-शिख' से इनका एक कवित्त दिया जाता है––

तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल,
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उसमान,
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है॥
नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,
भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।
'सूरति' सो याही तें जगत-बीच आजहूँ लौ
उनके बदन पर छार ढारियत है॥

(१६) कवींद्र (उदयनाथ)––ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे और संवत् १७३६ कें लगभग उत्पन्न हुए थे। इनका "रसचंद्रोदय" नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का पता खोज मे लगा है। 'विनोदचंद्रिका' संवत्