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रीति-ग्रंथकार कवि

१७७७ और 'रसचंद्रोदय' संवत् १८०४ मे बना। अतः इनका कविता-काल संवत् १८०४ या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह और गुरुदत्तसिंह (भूपति) के यहाँ बहुत दिन रहे।

इनका 'रसचंद्रोदय' शृंगार का एक अच्छा ग्रंथ है। इनकी भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वणर्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

शहर मँझार ही पहर एक लागि जैहै,
छोरे पै नगर के सराय है उतारे की।
कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की॥
घर के हमारे परदेस को सिधारे,
बातें दवा कै बिचारी हम रीति राहबारे की।
उतरो नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,
चौंकौं जनि चौंकी तही पाहरू हमारे की॥


राजे रसमै री तैसी बरषा समै री चढ़ी,
चंचला नचै री चकचौंधा कौधा बारैं री।
व्रती व्रत हारैं हिए परत फुहारै,
कछू छोरैं कछू धारैं जलधर जल-धारैं री॥
भनत कविंद कु जभौन पौन सौरभ सो,
काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?
काम-कदुका से फूल डोलि डोलि ढारैं, मन,
औरै किए ढारैं ये कदंबन की ढारैं री॥

(१७) श्रीपति––ये कालपी के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १७७७ में 'काव्य-सरोज' नामक रीतिग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और है––