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रीति-ग्रंथकार कवि

(२०) रसिक सुमति––ये ईश्वरदास के पुत्र थे और सन् १७८५ में वर्तमान थे। इन्होंने "अलंकार-चंद्रोदय" नामक एक अलंकार-ग्रंथ कुवलयानंद के आधार पर दोहों में बनाया। पद्यरचना साधारणतः अच्छी है। 'प्रत्यनीक' का लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में देखिए––

प्रत्यनीक अरि सों न बस, अरि-हितूहि दुख देय।
रवि सों चलै न, कंज की दीपति ससि हरि लेय॥

(२१) गंजन––ये काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होने संवत् १७८६ में "कमरुद्दीनखाँ हुलास" नामक शृंगाररस का एक-ग्रंथ बनाया जिसमें भावभेद, रसभेद के साथ षट्ऋतु का विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ मे इन्होंने अपना पूरा वंश-परिचय दिया है और अपने प्रपितामह मुकुटराय के कवित्व की प्रशंसा की है। कमरुद्दीनखाँ दिल्ली के बादशाह के वजीर थे और भाषाकाव्य के अच्छे प्रेमी थे। इनकी प्रशंसा गंजन ने खूब जी खोलकर की है जिससे जान पड़ता है इनके द्वारा कवि का बड़ा अच्छा संमान हुआ था। उपर्युक्त ग्रंथ एक अमीर को खुश करने के लिये लिखा गया है इससे ऋतुवर्णन के अंतर्गत उसमें अमीरी शौक और आराम के बहुत से सामान गिनाए गए हैं। इस बात में ये ग्वाल कवि से मिलते जुलते हैं। इस पुस्तक में सच्ची भावुकता और प्रकृतिरंजन की शक्ति बहुत अल्प है। भाषा भी शिष्ट और प्रांजल नहीं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

मीना के महल जरबाफ दर परदा हैं,
हलबी फनूसन में रोशनी चिराग की।
गुलगुली गिलम गरकआब पग होत,
जहाँ-बिछी मसनद लालन के दाम की॥
केती महताबमुखी खचित जवाहिरन,
गंजन सुकवि कहै बौरी अनुराग की।
एतमादुदौला कमरुद्दीनखाँ की मजलिस,
सिसिर में ग्रीषम बनाई बड़ भाग की॥

(२२) अलीमुहिबखाँ (प्रीतम)––ये आगरे के रहनेवाले थे। इन्होंने