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हिंदी-साहित्य का इतिहास


संवत् १७८७ में "खटमल-बाईसी" नाम की हास्यरस की एक पुस्तक लिखी। इस प्रकरण के आरंभ में कहा गया है कि रीतिकाल में प्रधानता शृंगाररस की रही। यद्यपि वीररस लेकर भी रीति-ग्रंथ रचे गए, पर किसी और रस को अकेला लेकर मैदान में कोई नहीं उतरा था। यह हौसले का काम हजरत अलीमुहिबखाँ साहिब ने कर दिखाया। इस ग्रंथ का साहित्यिक महत्व कई पक्षो में दिखाई पड़ता है। हास्य आलंबन-प्रधान रस है। आलंबन मात्र का वर्णन ही इस रस में पर्याप्त होता है। इस बात का स्मरण रखते हुए जब हम अपने साहित्यक्षेत्र मे हास के आलंबनों की परंपरा की जाँच करते हैं तब एक प्रकार की बँधी रूढ़ि सी पाते हैं। संस्कृत के नाटकों में खाऊपन और पेट की दिल्लगी बहुत कुछ बँधी सी चली आई। भाषा-साहित्य में कंजूसों की बारी आई। अधिकतर ये ही हास्यरस के आलंबन रहे। खाँ साहब ने शिष्ट हास का एक बहुत अच्छा मैदान दिखाया। इन्होंने हास्यरस के लिये खटमल को पकड़ा जिसपर यह संस्कृत उक्ति प्रसिद्ध है––

कमला कमले शेते, हरश्शेते हिमालये।
क्षीराब्धौ च हरिरिश्ते मन्ये मत्कुण-शंकया॥

क्षुद्र और महान् के अभेद की भावना उसके भीतर कहीं छिपी हुई है। इन सब बातों के विचार से हम खाँ साहब या प्रीतमजी को एक उत्तम श्रेणी का पथप्रदर्शक कवि मानते हैं । इनका और कोई ग्रंथ नहीं मिलता, न सही; इनकी "खटमल-बाईसी" ही बहुत काल तक इनका स्मरण बनाए रखने के लिये काफी है।

"खटमलबाईसी" के दो कवित्त देखिए––

जगत के कारन करन चारौ वेदन के,
कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धरिकै।
पोषन अवनि, दुख-सोषन तिलोकन के,
सागर में जाय सोए सैस सेज करिकै॥
मदन जरायो जो, सँहारै दृष्टि ही में सृष्टि,
बसे हैं पहार बेऊ भाजि हरवरिं कै।