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अपभ्रंश काल

संवत् ९९० में देवसेन नामक एक जैन ग्रंथकार हुए हैं। उन्होने भी 'श्रावकाचार' नाम की एक पुस्तक दोहों में बनाई थी, जिसकी भाषा अपभ्रंस का अधिक प्रचलित रूप लिए हुए हैं, जैसे-

जो जिण सासण भाषियउ सो मई कहियउ सारु ।
जो पालम सइ भाउ करि सो तरि पावई पारु ।

इन्हीं देवसेन ने 'दब्ब-सहाव-पयास’ ( द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश ) नामक एक और ग्रंथ दोहों में बनाया था जिसका पीछे से माइंल्ल धवल ने 'गाथा' या साहित्य की प्राकृत में रूपांतर किया। इसके पीछे तो जैन कवियो की बहुत सी रचनाएँ मिलती हैं, जैसे श्रुतिपंचमी कथा, योगसार, जसहरचरिउ, णयकुमारचरिउ इत्यादि । ध्यान देने की बात यह है कि चरित्र-काव्य या आख्यानकाव्य के लिये अधिकतर चौपाई दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है। पुष्पदंत ( संवत् १०२६ ) के 'आदिपुराण' और उत्तर पुराण' चौपाइयों में हैं। उसी काल के आस-पास का असहचरिउ” (यशधर-चरित्र) भी चौपाइयों में रचा गया है, जैसे-

विणु धवलेण सयडु किं हल्लई । बिणु जीवेण देहु किं चल्लइ ।
विणु जीवेण मोख्य को पावइ । तुम्हारसु किं अप्पइ आवइ ।।

चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों मे, तुलसी के रामचरितमानस में तथा छत्रप्रकाश, व्रजविलास, सबलसिंह चौहान के महाभारत इत्यादि अनेक आख्यान-काव्यों में पाते हैं।


बौद्धधर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूरबी भागो में बहुत दिनों से चला आ रहा था । इन बौद्ध तान्त्रिको के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे ! चौरासी सिद्ध इन्हीं में हुए हैं जिनका परंपरागत स्मरण जनता को अब तक है। इन तात्रिक योगियों को लोग अलौकिक-शक्ति-संपन्न समझते थे । ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिये प्रसिद्ध थे- राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी' में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है । इस प्रकार जनता पर इन सिद्ध योगियों का प्रभाव विक्रम की १०वीं शती से ही पाया जाता है, जो मुसलमानों के आने पर पठानों के समय तक कुछ न कुछ