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रीति-ग्रंथकार कवि

अँखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं,
मोहू तेँ जु न्यारी दास रहै सब काल में।
कौन गहै ज्ञानै, काहि सौंपत सयाने, कौन
लोक ओक जानै, ये नहीं हैं निज हाल में॥
प्रेम पनि रहीं, महामोह में उमगि रहीं,
ठीक ठगि रही, लगि रहीं बनमाल में।
लान को अँचै कै, कुलधरम पचै कै वृथा,
बंधन सँचे, कै भई मगन गोपाल में॥

(२४) भूपति (राजा गुरुदत्तसिंह)––ये अमेठी के राजा थे। इन्होंने संवत् १७९१ मे शृंगार के दोहों की एक सतसई बनाई। उदयनाथ कवींद्र इनके यहाँ बहुत दिनो तक रहे। ये महाशय जैसे सहृदय और काव्य-मर्मज्ञ थे वैसे ही कवियों की आदर-संमान करने वाले थे। क्षत्रियों की वीरता भी इनमें पूरी थी। एक बार अवध के नवाब सआदतखाँ से ये बिगड़ खड़े हुए। सआदतखाँ ने जब इनकी गढ़ी घेरी तब ये बाहर सआदतखाँ के सामने ही बहुतों को मारकाटकर गिराते हुए जंगल की ओर निकल गए। इसका उल्लेख कवींद्र ने इस प्रकार किया है––

समर अमेठी के सरेष गुरुदत्तसिंह,
सादत की सेना समरसेन सों भानी है।
भनत कवींद्र काली हुलसी असीसन को ,
सीसन को ईस की जमाति सरसानी है॥
तहाँ एक जोगिनी सुभट खोपरी लै उड़ी,
सोनित पियत ताकी उपमा बखानी है
प्यालो लै चिनी को नीके जोबन-तरंग मानो,
रंग हेतु पीवत मजीठ मुगलानी है॥

'सतसई के अतिरिक्त भूपतिजी ने 'कंठाभूषण' और 'रसरत्नाकर' नाम के दो रीति-ग्रंथ भी लिखे थे जो कहीं देखे नहीं गए हैं। शायद अमेठी में हों। सतसई के दोहे दिए जाते है––