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हिंदी-साहित्य का इतिहास


दुंद देखि अरविंद बंदीखाने तें भगाने,
पायक पुलिंद वै मलिंद मकरंद-चोर॥


(२८) सोमनाथ––ये माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् १७९४ में 'रसपीयूषनिधि' नामक रीति का एक विस्तृत ग्रंथ बनाया जिसमें पिंगल, काव्यलक्षण, प्रयोजन, भेद, शब्दशक्ति, ध्वनि, भाव, रस, रीति, गुण, दोष इत्यादि सब विषयों का निरूपण है। यह दासजी के काव्य-निर्णय से बड़ा ग्रंथ है। काव्यांग-निरूपण में ये श्रीपति और दास के समान ही है। विषय को स्पष्ट करने की प्रणाली इनकी बहुत अच्छी है।

विषय-निरूपण के अतिरिक्त कवि-कर्म में भी ये सफल हुए हैं। कविता में ये अपना उपनाम 'ससिनाथ' भी रखते थे। इनमें भावुकता और सहृदयता पूरी थी, इससे इनकी भाषा मे कृत्रिमता नहीं आने पाईं। इनकी एक अन्योक्ति कल्पना की मार्मिकता और प्रसादपूर्ण, व्यंग्य के कारण प्रसिद्ध है। सघन और पेचीले मजमून गाँठने के फेर में न पड़ने के कारण इनकी कविता को साधारह समझना सहृदयता के सर्वथा विरुद्ध है। 'रसपियूष-निधि' के अतिरिक ग्वोज में इनके तीन और ग्रंथ मिले हैं––

कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी (संवत् १८००)
सुजान-विलास (सिंहासन-बत्तीसी, पद्य में; संवत् १८०७)
माधव-विनोद नाटक (संवत् १८७९)

उक्त ग्रंथों के निर्माण-काल की ओर ध्यान देने से इनका कविता-काल-संवत् १७९० से १८१० तक ठहरता है।

रीतिग्रंथ और मुक्तक-रचना के-सिवा इस सत्कवि ने प्रबंधकाव्य की ओर भी ध्यान दिया। सिंहासन बत्तीसी के अनुवाद को यदि हम काव्य न माने तो कम से कम पधप्रबंध अवश्य ही कहना पड़ेगा। 'माधव-विनोद' नाटक शायद मालती-माधव के आधार लिखा हुआ प्रेमप्रबंध है। पहले कहा जा चुका है कि कल्पित कथा लिखने की प्रथा हिंदी के कवियों के प्रायः नहीं के बराबर रहीं। जहाँगीर के समय में संवत् १६७३ में बना पुहकर कवि का 'रसरत्न' ही