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हिंदी-साहित्य का इतिहास

है। इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अंगदर्पण" संवत् १७९४ में लिखी जिसमें अंगों का, उपमा-उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिये यह ग्रंथ काव्य-रसिकों में बराबर विख्यात चला आया है। यह प्रसिद्ध दोहा जिसे जनसाधारण बिहारी का समझा करते हैं, अंगदर्पण का ही है––

अमिय, हलाहह, मद भरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहिं चितवत इक बार॥

'अंगदर्पण' के अतिरिक्त रसलीनजी ने सं॰ १७९८ में 'रसप्रबोध' नामक रसनिरूपण का ग्रंथ दोहों में बनाया। इसमें ११५५ दोहे हैं और रस, भाव,-नायिकाभेद, षट्ऋतु, बारहमासा आदि अनेक प्रसंग आए है। इस विषय का अपने ढंग का यह छोटा सा अच्छा ग्रंथ है। रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिये और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी। पर यह-ग्रंथ अंगदर्पण के ऐसा प्रसिद्ध न हुआ।

रसलीन ने अपने को दोहों की रचना तक ही रखा जिनमे पदावली की गति द्वारा नाद-सौंदर्य का अवकाश बहुत ही कम रहता है चमत्कार और उक्ति वैचित्र्य की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा। नीचे इनके कुछ दोहे दिए जाते हैं––

धरति न चौकी नगजरी, यातें उर में लाय।
छाँह परे पर-पुरुष की, जनि तिय-धरम नसाय॥
चख चलि स्तत्रवन मिल्यो चहत, कच बढि छुवन छवानि।
कटि निज दरब धरयो चहत, वक्षस्थल में आनि॥
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि, मास मास कढ़ि, आय।
तुव मुख-मधुराई लखे फीको परि घटि जाय॥
रमनी-मन पावत नहीं लाज प्रीति को अंत।
दुहूँ ओर ऐंचो रहै, जिमि बिबि तिय को कंत॥
तिय-सैसव-जोवन मिले, भेद न जान्यो जात।
प्रात समय निसि द्यौस के दुवौ भाव दरसात॥

(३०) रघुनाथ––ये बंदीजन एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं जो काशिराज