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हिंदी-साहित्य का इतिहास

बना रहा। बिहार के नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे। बख्तियार खिलजी ने इन दोनों स्थानों को जब उजाड़ा तब ये तितर-बितर हो गए। बहुत से भोट आदि देशों को चले गए।

चौरासी सिद्धों के नाम ये हैं––लूहिपा, लीलापा, विरूपा, डोंभिपा, शवरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खडगपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्णरिपा, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, छत्रपा, भद्रपा, दोखधिपा, अजोगिपा, कालपा, धोभीपा, कंकणपा, कमरिया, डेगिपा, भदेपा, तधेपा, कुक्कुरिपा, कुचिपा, धर्मपा, महिपा, अचिंतिपा, भल्लहपा, नतिनपा, भूसुकुपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुठालिए, जालंधरपा, राहुलपा, धर्वरिपा, धोकरिपा, मेदिनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिपा, लुचिकपा, निर्गुणपा, जयानंत, चर्पटीपा, चंपका, भिखनपा, भलिपा, कुमरिपा, चँवरिपा, मणिभद्रा (योगिनी), कनखलापा (योगिनी), कलंकलपा, कंतालीपा, धहुरिपा, उधरिपा, कपालपा, किलपा, सागरपा, सर्वभक्षपा, नाराबोधिपा, दारिकपा, पुतुलिपा, पनपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा (योगिनी) समुदपा, भलिपा।

('पा' आदरार्थक 'पाद' शब्द है। इस सूची के नाम पूर्वापर कालानुक्रम से नही है। इनमें से कई एक समसामयिक थे।)

वज्रयान शाखा में जो योगी 'सिद्ध' के नाम से प्रसिद्ध हुए वे अपने मत का संस्कार जनता पर भी डालना चाहते थे। इससे वे संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी अपभ्रंश-मिश्रित देशभाषा या काव्यभाषा में भी बराबर सुनाते रहे हैं उनकी रचनाओं का एक संग्रह पहले म॰ म॰ हरप्रसाद शास्त्री ने बँगला अक्षरों में "बौद्धगान ओ दोहा" के नाम से निकाला था। पीछे त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायनजी भोट देश में जाकर सिद्धों की और बहुत सी रचनाएँ लाए। सिद्धों में सबसे पुराने 'सरह' (सरोजवज्र भी नाम है) हैं जिनका काल डाक्टर विनयतोष भट्टाचार्य्य[१] ने विक्रम संवत् ६९० निश्चित किया है। उनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं––


  1. Buddhist Esoteriom