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रीति-ग्रंथकार कवि

सुधरे सिलाह राखै, वायु वेग वाह राखै,
रसद की राह राखै, राखे रहै बैन को।
चोर को समाज राखै बजा औ नजर, राखै,
खबरी के काज बहुरूपी हर फन को॥
आगम-भखैया राखै, सगुन-लेवैया राखै,
कहैं रघुनाथ औ बिचार बीच मन को।
बाजी हारै कबहूँ न औसर के परे जौन,
ताजी राखै प्रजन को, राजी सुभटन को॥


आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं,
दरियाव, पास नदी होयगी सो धावैगी।
दरखत बेलि-आसरे को कभी राखता न,
दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी॥
मेरे तो लायक जो था कहना सो कहा मैंने,
रघुनाथ मेरी मति न्याव ही की गावैगी।
वह मुहताज आपकी है; आप उसके न,
आप क्यों चलोगे? वह आप पास आवैगीं॥

(३१) दूलह––ये कालिदास त्रिवेदी के पौत्र और उदयनाथ 'कवीद्र' के पुत्र थे। ऐसा जान पड़ता है कि ये अपने पिता के सामने ही अच्छी कविता करने लगे थे। ये कुछ दिनो तक अपने पिता के सम-सामयिक रहे। कवींद्र के रचे ग्रंथ १८०४ तक के मिले है‌। अतः इनका कविता-काल संवत् १८०० से लेकर संवत् १८२५ के आसपास तक माना जा सकता है। इनका बनाया एक ही ग्रंथ "कविकुल-कंठाभरण" मिला है जिसमें निर्माण-काल नहीं दिया है। पर इनके फुटकल कवित्त और भी सुने जाते हैं।

"कविकुल-कंठाभरण" अलंकार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें यद्यपि लक्षण और उदाहरण एक ही पद्य में कहे गए है पर कवित्त और सवैया के समान बड़े छंद लेने से अलंकार-स्वरूप और उदाहरण दोनों के सम्यक् कथन के लिये पूरा अवकाश मिला है। भाषाभूषण आदि दोहों में रचे हुए इस

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