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हिंदी-साहित्य का इतिहास

छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को,
पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।
मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रीनन में,
जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै॥
ऋषिनाथ सदानंद-सुजस, बिलंद,
तमवृंद के हरैया चंदचंद्रिका मुढार ह्वै।
हीतल को सीतल करत धनसार ह्वै,
महीतल को पावन करत गंगधार ह्वै॥

(३७) बैरीसाल––ये असनी के रहनेवाले ब्रह्मभट्ट थे। इनके वंशधर अब तक असनी में हैं। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकार-ग्रंथ सं॰ १८२५ में बनाया जिसमें प्रायः दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक, नहि पंक।
बीस बिसे बिरहा दही, गडी दीठि ससि अंक॥
करत कोकनद मदहि रद, तुव पद हर सुकुमार।
भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार॥

(३८) दत्त––ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमानसिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविता-काल भवत् १८३० माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते हैं। एक सवैया दिया जाता हैं––

ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।
धाम सों बामलता मुरझानी, बयारि करैं धनश्याम दुकूल सों॥
कंपत यों प्रकाट्यो तन स्वेद उरोजन दत्त जू ठोढ़ी के मूल सों।
ह्वै अरविंद-कलीन पै मानो तिरै मकरंद गुलाब के फूल सों॥

(३९) रतन कवि––इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल सं॰ १७९८ लिखा है। इससे इनका कविता-काल सं॰ १८३० के