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हिंदी-साहित्य का इतिहास

आधेय अधिक तें आधार की अधिकताई,
"दूसरो अधिक" आयो ऐसो गननन में।
तीनों लोक तन में, अमान्थो ना गगन में,
बसैं ते संत-मन में, कितेक कहौ मन में॥


(३२) कुमारमणिभट्ट––इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८०३ के लगभग "रसिक रसाल" नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिवल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका एक सवैया देखिए––

गावैं वधू मधुरै सुर गीतन, प्रीतम सँग न बाहिर आई।
छाई कुमार नई छिति में छवि, मानो बिछाई नई दरियाई॥
ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिलि बोली यों बाल गरो भरि आई।
कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलहीं हरिआई॥

(३३) शंभुनाथ मिश्र––इस नाम के कई कवि हुए हैं जिनमें से एक संवत १८०६ में, दूसरे १८६७ में और तीसरे १९०१ में हुए हैं। यहाँ प्रथम का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने 'रसकल्लोल', 'रसतरंगिणी' और 'अलंकारदीपक' नामक तीन रीतिग्रंथ बनाए हैं। ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराव खीची के यहाँ रहते थे। 'अलंकारदीपक' में अधिकतर दोहे हैं, कवित्त सवैया कम। उदाहरण शृंगार-वर्णन में अधिक प्रयुक्त न होकर आश्रयदाता के यश और प्रताप-वर्णन में अधिक प्रयुक्त है। एक कवित्त दिया जाता है––

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही,
धौंसा की धुकार धूरि परी मुँह माही के।
भय के अजीरन तें जीरन उजीर भए,
सूल उठी उर में अमीर जाहीं ताही के॥
बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानी, इतै
धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के।