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रीति-ग्रंथकार कवि

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब,
स्याही लाई बदन तमाम पातसाही के॥

(३४) शिवसहायदास––ये जयपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सवत् १८०९ में 'शिवचौपाई' और 'लोकोक्तिरस कौमुदी' दो ग्रंथ बनाए। लोकोक्तिरसकौमुदी में विचित्रता यह है कि पखानों या कहावतों को लेकर नायिकाभेद कहा गया है, जैसे––

करौ रुखाई नाहिंन बाम। बेगिहिं लै आऊँ घनस्याम॥
कहे पखानो भरि अनुराग। बाजी ताँत, कि बूझयौ राग॥
बोलै निठुर पिया बिनु दोस। आपुहि तिय बैठी गहि रोस॥
कहै पखानो जेहि गहि मोन। बैल न कूद्यो, कूदी गौन॥

(३५) रूपसाहि––ये पन्ना के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होने संवत् १८१३ में 'रूपविलास', नामक एक ग्रंथ लिखा जिसमे दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, कुछ नायिकाभेद आदि। दो दोहे नमूने के लिये दिए जाते हैं––

जगमगाति सारी जरी, झलमल भूषन-जोति।
भरी दुपहरी तिया की, भेंट पिया सों होति॥
लालन बेगि चलौ न क्यों? बिना तिहारे बाल।
मार मरोरनि सो मरति, करिए परसि निहाल॥


(३६) ऋषिनाथ––ये असनी के रहनेवाले बंदीजन, प्रसिद्ध कवि ठाकुर के पिता और सेवक के प्रपितामह थे। काशिराज के दीवान सदानंद और रघुवर कायस्थ के आश्रय में इन्होने 'अलंकारमाणि-मंजरी' नाम की एक अच्छी पुस्तक बनाई जिसमें दोहों की संख्या अधिक है यद्यपि बीच बीच में घनाक्षरी और छप्पय भी है। इसकी रचना-काल स॰ १८३१ है जिससे यह इनकी वृद्धावस्था का ग्रंथ जान पड़ता है। इनका कविता-काल सं॰ १७९० से १८३१ तक माना जा सकता है। कविता ये अच्ची करते थे। एक कवित्त दिया जाता है––