पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

अंतस्साधना पर जोर और पंडितो को फटकार-

पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ । देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ।
अमणागमण ण तेन बिखंडिअ । तोवि णिलज्ज भणइ हउँ पंडिअ ।।

जहि मन पवन ने संचरइ, रवि ससि नाहि पवेस ।
तहिं बट चित्त बिसाम करु, सरेहे कहिअ उवेस ।।
घोर अँधारे चँदमणि जिमि उज्जोअ करेइ ।
परम महासुह एखु कणे दुरिअ अशेष हरेइ ।।
जीवंतह जो नउ जर सो अजरामर होई ।
गुरु उपएसें बिमलमई सो पर घण्णा कोई ॥


दक्षिण मार्ग छोड़कर वाममार्ग-ग्रहण का उपदेश-

नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल । चिअराअ सहाबे मूकल ।
उजु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे बंक । निअहि वोहि मा जादु रे रंक ।।

लूहिपा या लूइपा (संवत् ८३० के आसपास) के गीतो से कुछ उद्धरण-

काआ तरुवर पंच -बिडाल। चंचल चीए पइठो काल ।

दिट करिअ महासुह परिमाण । लूइ भणई गुरु पुंच्छिअ जाण ।।

भाव न होई, अभाव ण जाई । अइस संबोहे को पतिआइ

लुइ भणइ बट दुर्लक्ख बिणाण । तिअ धाए बिलसई, उह लागे णा ।

बिरूपा ( संक्त् ६०० के लगभग ) की वारुणी-प्रेरितं अतर्मुख साधना की पद्धति देखिए-

सहजे थिर करि वारुणी साध । अजरामर होइ दिट कांध । दशमि दुआरत चिह्न देखईआ । आइल गराहक अपणे बहिआ । चउशठि घडिए देट पसारा । पइठल गराहक नाहिं निसार ।

कण्हपा ( सं ०.९०० के उपरांत ) की बानी के कुछ खंड नीचे उद्धृत किए जाते हैं-