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रीति-ग्रंथकार कवि

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा, यह चातुरता न लुगायने में।
पुनि बारिनी जानि अनारिनी है, रुचि एती न चंदन नायन में॥
छबि रंग सुरंग के बिंदु बने, लगैं इंद्रवधू लघुतायन में।
चित जो चहै दी चकि सी रहैं दी, केहि दी मेंहदी इन पायन में॥

(४३) देवकीनंदन––ये कन्नौज के पास मकरंदनगर ग्राम के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम शषली शुक्ल था। इन्होंने सं॰ १८४१ में 'शृंगारचरित्र' और १८५७ मे 'अवधूत-भूषण' और 'सरफराज-चद्रिका' नामक रस और अलंकार के ग्रंथ बनाए। संवत् १८४३ में ये कुँवर सरफराज गिरि नामक किसी धनाढ्य महंत के यहाँ थे जहाँ इन्होंने 'सरफराज-चद्रिका' नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा। इसके उपरांत ये रुद्दामऊ (जिला हरदोई) के रईस अवधूत सिंह के यहाँ गए जिनके नाम पर 'अवधूत-भूषण' बनाया। इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख को ही पता था, दूसरे ग्रथों का नहीं।

'शृंगारचरित्र' में रस, भाव, नायिकाभेद आदि के अतिरिक्त अलंकार भी आ गए हैं। 'अवधूत-भूषण' वास्तव में इसी का कुछ प्रवर्द्धत रूप है। इनकी भाषा मँजी हुई और भाव प्रौढ़ हैं। बुद्धि-वैभव भी इनकी रचना में पाया जाता है। कहीं कहीं कूट भी इन्होंने कहे है। कला-वैचित्र्य की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य पूरा है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

बैठी रंग-रावटी में हेरत पिया की बाट,
आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं।
देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई,
जानि गति प्रलय की ढरानी बहू, वीर! मैं॥
सैज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी,
तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।
पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट,
ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं॥