पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३०५
रीति-ग्रंथकार कवि

घनन के ओर, सोर चारों ओर मोरन के,
अति चितचोर तैसे अंकुर मुनै रहैं।
कोकिलन कूक हूक होति बिरहीन हिय,
लूक से जगत चीर चारन चुनै रहैं॥
झिल्ली झनकार तैसी पिकन पुकार डारी,
मारि डारी डारी द्रुम अंकुर सु नै रहैं।
लुनैं रहैं प्रान प्रानप्यारे जसवंत बिनु,
कारे पीरे लाल ऊदे बादर उनै रहैं॥

(५०) यशोदानंद––इनका कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं। शिवसिंहसरोज में जन्म संवत् १८२८ लिखा पाया जाता है। इनका एक छोटा-सा ग्रंथ "बरवै नायिका-भेद" ही मिलता है जो निस्संदेह अनूठा है और रहीमवाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है। इसमे ९ बरवा संस्कृत में और ५३ ठेठ अवधी भाषा में है। अत्यंत मृदु और कोमल भाव अत्यंत सरल और स्वाभाविक रीति से व्यंजित हैं। भावुकता ही कवि की प्रधान विभूति है। इस दृष्टि से इनकी यह छोटी सी रचना बहुत सी बड़ी बड़ी रचनाओं से मूल्य में बहुत अधिक है। कवियो की श्रेणी में ये निस्संदेह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। इनके बरवै के नमूने देखिए––


(संस्कृत)यदि च भवति बुध-मिलनं किं त्रिदिवेन।
यदि च भवति शठ-मिलनं किं निरयेण॥



(भाषा)अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु ने देई।
नैना करै मथनिया, मन मथि लेइ॥
तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराई।
छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ॥
पीतम तुम कचलोइया, हम गजबेलि।
सारस कै असि जोरिया फिरौं अकेलि॥

(५) करन कवि––ये षट्कुल कान्यकुब्जो के अंतर्गत पाँण्डे थे और

२०