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अपभ्रंश काल


इसी ढंग का कुक्कुरिपा (सं॰ ९०० के उपरांत) का एक गीत लीजिए––

ससुरी निंद गेल, बहुडी जागअ। कानैट चोर निलका गइ मागअ।
दिवसइ बहुढी काढ़ई डरे भाअ। राति भइले कामरू जाअ।

रहस्य-मार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार सिद्ध लोग अपनी बानी को ऐसी पहेली के रूप में भी रखते थे जिसे कोई विरला ही बूझ सकता है । सिद्ध तांतिपा की अटपटी बानी सुनिए-

बेंग संसार बाड़हिल जाअ। दुहिल दूध के बेटे समाअ॥
बलद बिआएल गविआ बाँझे। पिटा दुहिए एतिना साँझे॥
जो सो बुज्झी सों धनि बुधी। जो सो, चोर सोइ साधी॥
निते निते पिआला पिहे षम जुझअ। ढेंढपाएर गीत विरले बुझअ॥

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बौद्ध धर्म ने जब तांत्रिक रूप धारण किया तब उसमें पाँच ध्यानी बुद्धों और उनकी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक बोधिसत्वों की भावना की गई जो सृष्टि का परिचालन करते है। वज्रयान में आकर 'महासुखवाद' का प्रवर्तन हुआ। प्रज्ञा और उपाय के योग से इस महासुखदशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिए। निर्वाण के तीन अवयव ठहराए गए––शून्य, विज्ञान और महासुख। उपनिषद् में तो ब्रह्मानंद के सुख के परिमाण का अंदाज कराने के लिये उसे सहवास-सुख से सौगुना कहा था पर वज्रयान में निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवास-सुख के समान बताया गया। शक्तियों सहित देवताओं के 'युगनद्ध' स्वरूप की भावना चली और उनकी नग्न मूर्तियों सहवास की अनेक अश्लील मुद्राओं में बनने लगीं, जो कहीं कही अब भी मिलती हैं। रहस्य या गुह्य की प्रवृत्ति बढ़ती गई और 'गुह्य समाज' या 'श्री समाज' स्थान स्थान पर होने लगे। ऊँचे नीचे कई वर्षों की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक बीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्त करने के लिये किसी स्त्री का (जिसे शक्ति, यौगिनी या महामुद्रा कहते थे) योग या सेवन आवश्यक था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय देश के पूरबी भागों में (बिहार, बंगाल और उड़ीसा में) धर्म के नाम पर बहुत दुराचार फैला था।