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रीति-ग्रंथकार कवि

जाकी बदजाती बदजाती यहाँ चारन में,
ताकी बदजाती बदजाती ह्वाँ उराहना॥
ग्वाल कवि वे ही परसिद्ध सिद्ध जो है जग,
वे ही परसिद्व ताकी यहाँ ह्वाँ सराहना।
जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहना है,
जाकी यहाँ चाह ना है ताकी वहाँ चाह ना॥


दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि,
खाव पियो, देब लेब, यही रह जाना है।
राजा राव उमराव केते बादशाह भए,
कहाँ तें कहाँ को गए, लग्यो न ठिकाना है॥
ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे,
देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।
आए परवाना पर चलै ना बहाना, यहाँ,
नेकी कर जाना, फेर आना है न जाना है॥


(५६) प्रतापसाहि––ये रतनसेन बंदीजन के पुत्र थे और चरखारी (बुदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् १८८२ में "व्यंग्वार्थ-कौमुदी" और संवत् १८८६ में "काव्य-विलास" की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी बनाई हुई और है––

जयसिंह प्रकाश (सं॰ १८५२), शृंगार-मंजरी (सं॰ १८८९), शृंगार शिरोमणि (सं॰ १८९४), अलंकार-चिंतामणि (सं॰ १८९४), काव्य-विनोद (१८९६), रसराज की टीका (सं॰ १८९६), रत्नचंद्रिका (सतसई की टीका स॰ १८९६), जुगल नखशिख (सीताराम को नखशिख वर्णन), बलभद्र नखशिख की टीका।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८८० से १९०० तक ठहरता है। पुस्तकों के नाम से ही इनकी साहित्य-मर्मज्ञता और पांडित्य का