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हिंदी-साहित्य का इतिहास

चीज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पैहो, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो॥


तड़पै तडिता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरिशृंगन पै गन मंजु मयूरन के कहरैं॥
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सौं गहरैं।
घन ये नभ मंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं॥


कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।
एड़ भरी अँगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति॥
मंजन के दृग अंजन आँजति, अंग अनंग-उमंग बढ़ावति।
कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन आँगन में खिन पौरि में आवति॥


कहा जानि, मन में मनोरथ विचार कौन,
चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।
कहै परताप छिन डोलिवो पगन कहूँ,
अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात॥
ननद जिठानी सतरानी, अनखानि अति,
रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछू जानी जात।
चाहौ पल बैठी रहौ, चाहौ चठि जाव तौ न,
हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?


चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,
झूमि झूमि धुरवा धरनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद बियौगिन्ह,
सँयोगिन्ह समाज सुखसाज, सरसत है॥
कहैं परताप अति निविड़ अँधेरी माँह,
मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।