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हिंदी-साहित्य का इतिहास

(२) रसिक गोविंदानंदघन––यह सात आठ सौ पृष्ठों का बड़ा भारी रीतिग्रंथ है जिसमें रस, नायक-नायिकभेद, अलंकार, गुण-दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। इसे इनका प्रधान ग्रंथ समझना चाहिए। इसका निर्माणकाल बसंत पंचमी संवत् १८५८ है। यह चार प्रबंधों में विभक्त है। इसमें बड़ी भारी विशेषता यह है कि लक्षण गद्य में हैं और रसों अलंकारो आदि के स्वरूप गद्य में समझाने का प्रयत्न क्रिया गया है। संस्कृत के बड़े बड़े आचार्यों के मतों का उल्लेख भी स्थान स्थान पर है। जैसे, रस का निरूपण इस प्रकार है––

"अन्य-ज्ञानरहित जो आनंद सो रस। प्रश्न––अन्य-ज्ञान-रहित आनंद तो निद्रा ही हैं। उत्तर––निद्रा जड़ है, वह चेतन। भरत आचार्य सूत्रकर्ता को मत––विभाव, अनुभाव, संचारी, भाव के जोग तें रस की सिद्धि। अथ काव्यप्रकाश को मत––कारण कारज सहायक हैं जे लोक में इन्हीं को नाट्य में, काव्य में, विभाव संज्ञा है। अथ टीकाकर्ता को मत तथा साहित्यदर्पण को मत––सत्व, विशुद्ध, अखंड, स्वप्रकाश, आनंद, चित्, अन्य ज्ञान नहिं संग, ब्रह्मास्वाद, सहोदर रस"।

इसके आगे अभिनवगुप्ताचार्य का मत कुछ विस्तार से दिया है। सारांश यह कि यह ग्रंथ आचार्यत्व की दृष्टि से लिखा गया है और इसमें संदेह नहीं कि और ग्रंथों की अपेक्षा इसमें विवेचन भी अधिक हैं और छूटी हुई बातो का समावेश भी। दोषो का वर्णन, जो हिंदी के लक्षण ग्रंथो में बहुत कम पाया जाता है, इन्होंने काव्यप्रकाश के अनुसार विस्तार से किया है। रसो, अलंकारो आदि के उदाहरण कुछ तो अपने हैं, पर बहुत से दूसरे कवियों के उदाहरणों के चुनने में इन्होंने बड़ी सहृदयता का परिचय दिया है। संस्कृत के उदाहरणों के अनुवाद भी बहुत सुंदर करके रखे हैं। साहित्यदर्पण के मुग्धा के उदाहरण (दत्ते सालसमंथरं...इत्यादि) को देखिए हिंदी में ये किस सुंदरता से लाए हैं––

आलम सों मंद मंद धरा पै धरति पाय,
भीतर तें बाहिर न आवै चित चाय कै।
रोकति दृगनि छिनछिन प्रति लाज साज,
बहुत हँसी की दीनी बानि बिसराय कै॥