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रीतिकाल के अन्य कवि

संवत् १७१८ और संवत् १७८१ के बीच पूरा किया। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार' का भाषानुवाद, 'रूपविलास' और एक पिंगल ग्रंथ भी लिखा था पर ये प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिये ही प्रसिद्ध हैं। उसमें यद्यपि भाषा का लालित्य या काव्य की छुटा नहीं है पर सीधीसादी भाषा में कथा अच्छी तरह कहीं गई है। रचना का ढंग नीचे के अवतरण से विदित होगा––

अभिमनु धाइ खडग परहारे। सम्मुख जेहि पायो तेहि मारे॥
भूरिश्रवा बान दस छाँटे। कुँवर-हाथ के खड़गहि काटे॥
तीनि बान सारथि उर मारे। आठ बान तें अस्व सँहारे॥
सारथि जुझि गिरे मैदाना। अभिमनु वीर चित्त अनुमाना॥
यहि अंतर सेना सब धाई। मारु मारु कै मारन आई॥
रथ को खैंचि कुँवर कर लीन्हें। ताते मार भयानक कीन्हें॥
अभिमनु कोपि खंभ परहारै। इक इक घाव वीर सब मारे॥

अर्जुनसुत इमि मार किय महाबीर परचंड।
रूप भयानक देखियत जिमि जम लीन्हें दंड॥


(३) वृंद––ये मेड़ता (जोधपुर) के रहनेवाले थे और कृष्णगढ़ नरेश महाराज राजसिंह के गुरु थे। संवत् १७६१ में ये शायद कृष्णगढ़-नरेश के साथ औरंगजेब की फौज मे ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी "वृंदसतसई" (संवत् १७६१), जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'शृंगारशिक्षा' (संवत् १७४८) और 'भावपंचाशिका' नाम की दो रस-संबंधी पुस्तकें और मिली हैं पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। वृंदसतसई के कुछ दोहे नीचे दिए जाते हैं––

भले बुरे सब एक सम जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥