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हिंदी-साहित्य का इतिहास

हितहू की कहिए न तेहि, जो नर होत अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध॥

(४) छत्रसिंह कायस्थ––ये बटेश्वर क्षेत्र के अटेर नामक गाँव के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके आश्रय-दाता अमरावती के कोई कल्याणसिंह थे। इन्होंने 'विजयमुक्तावली' नाम की पुस्तक संवत् १७५७ में लिखी जिसमें महाभारत की कथा एक स्वतंत्र प्रबंधकाव्य के रूप में कई छदों में वर्णित है। पुस्तक में काव्य के गुण यथेष्ट परिमाण में है और कहीं-कहीं की कविता बड़ी ओजस्विनी हैं। कुछ उदाहरण लीजिए––

निरखत ही अभिमन्यु को, विदुर डुलायो सीस।
रच्छा बालक की करी, ह्वै कृपाल जगदीस॥
आपुन काँधो युद्ध नहिं, धनुष दियो भुव ढारि।
पापी बैठे गेह कत, पांडुपुत्र तुम चारि॥
पौरुष तजि लज्जा तजी, तजी सकल कुलकानि।
बालक रनहिं पठाय कै, आपु रहे सुख मानि॥



कवच कुंडल इंद्र लीने बाण कुंती लै गई।
भई बैरिनि मेदिनी चित कर्ण के चिंता भई॥

(५) बैंताल––ये जाति के बंदीजन थे और राजा विक्रमसाहि की सभा में रहते थे। यदि ये विक्रमसहि चरखारीवाले प्रसिद्ध विक्रमसाहि ही हैं जिन्होंने 'विक्रमसतसई' आदि कई ग्रंथ लिखे हैं और जो खुमान, प्रताप आदि कई कवियों के आश्रयदाता थे, तो बैताल का समय संवत् १८३९ और १८८६ के बीच मानना पड़ेगा। पर शिवसिंहसरोज में इनका जन्मकाल सं॰ १७३४ लिखा हुआ है। बैताल ने गिरिधरराय के समान नीति की कुंडलियो की रचना की है। और प्रत्येक कुंडलिया विक्रम को संबोधन करके कही है। इन्होंने लौकिक व्यवहार-संबंधी अनेक विषयों पर सीधे-सादे पर जोरदार पद्य कहे हैं। गिरिधरराय के समान इन्होंने भी वाक्चातुर्थ्य या उपमांरूपक आदि लाने का प्रयत्न नहीं किया है। बिलकुल सीधी-सादी बात ज्यों की त्यों छंदोबद्ध कर दी गई है।