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अपभ्रंश काल

गृहिणी का उपभोग न करेगा तब तक पंचवर्ण की स्त्रियों के साथ विहार क्या करेगा ?' । वज्रयान में ‘महासुह’ ( महासुख ) वह दशा बतलाई गई है जिसमे साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में । इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध' ( स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा ) की भावना की गई । कण्हपा का यह वचन कि "जिमि लौण बिलिज्जइ पाणिएहि तिमि घरणी लई चित्त", इसी सिद्धांत का द्योतक है । कहने की आवश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्हीं वज्रयानियों से निकले । कैसा ही शुद्ध और सात्विक धर्म हो, 'गुह्य' और 'रहस्य के प्रवेश से वह किस प्रकार विकृत और पाखंडपूर्ण हो जाता हैं, वज्रयान इसका प्रमाण है।


गोरखनाथ के नाथपंथ की मूल भी बौद्धों की यही वज्रयान शाखा है। चौरासी सिद्धों में गोरखनाथ ( गोरक्षपा ) भी गिन लिए गए है । पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया । योगियों की इस हिंदूशाखा ने वज्रयानियों के अश्लील और बीभत्स विधान से अपने को अलग रखा, यद्यपि शिव-शक्ति की भावना के कारण कुछ शृंगारमयी वाणी भी नाथपंथ के किसी किसी ग्रंथ ( जैसे, शक्तिसंगम तंत्र ) में मिलती है । गोरख ने पतंजलि के उच्च लक्ष्य, ईश्वर-प्राप्ति को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया । वज्रयानी सिद्धों का लीला-क्षेत्र भारत का पूरबी भाग था । गोरख ने अपने पंथ का प्रचार देश के पश्चिमी भागो मे--–राजपुताने और पंजाब में----किया । पंजाब में नमक के पहाड़ों के बीच बालनाथ योगी का स्थान बहुत दिनों तक प्रसिद्ध रहा । जायसी की पद्मावत में "बालनाथ का टीला" आया है ।

गोरखनाथ के समय का ठीक पता नहीं । राहुल सांकृत्यायनजी ने वज्रयानी सिद्धो की परंपरा के बीच उनका जो स्थान रखा है, उसके अनुसार उनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी आता है । उनका आधार वज्रयानी सिद्धों की एक पुस्तक "रत्नाकर जोपम कथा" है, जिसके अनुसार मीननाथ के पुत्र मत्स्येद्रनाथ कामरूप के मछवाहे थे और चर्पटीपा के शिष्य होकर सिद्ध हुए थे । पर सिद्धो की अपनी सूची में सांकृत्यायनजी ने ही मत्स्येंद्र को जलंधर का शिष्य लिखा है, जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है । गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ ( मछंदरनाथ ) थे, यह तो प्रसिद्ध ही है । सांकृत्यायनजी ने मीननाथ या मीनपा