पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३३५
रीतिकाल के अन्य कवि

(युद्ध-वर्णन)

छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो। अरुन रंग आनन छबि छायो॥
भयो हरौल बजाय नगारो। सार धार को पहिरनहारो॥
दौरि देस मुगलन के मारौ। दपटि दिली के दल संहारौ॥
एक आन सिवराज निबाही। करै आपने चित की चाहीं॥
आठ पातसाही झकझोरे। सूबनि पकरि दंड लै छोरे॥

काटि कटक किरवान बल, बांटि जंबुकनि देहु।
ठाटि युद्ध यहि रीति सों, बाँटि धरनि धरि लेहु॥

चहूँ ओर सों सूबनि घेरो। दिमनि अलातचक्र सो फेरो॥
पजरे सहर साहि के बाँके। धूम धूम में दिनकर ढाँके॥
कबहूँ प्रगटि युद्ध में हाँकै। मुगलनि मारि पुहुमि तल ढाँकै॥
बानन बरखि गयदनि फोरै। तुरकनि तमक तेग तर तोरै॥
कबहूँ उमहिं अचानक आवै। घनसम घुमहिं लोह बरसावे॥
कबहूँ हाँकि हरौलन कूटै। कबहूँ चापि चंदालनि लूटै॥
कबहूँ देस दौरि कै लावै। रसद कहूँ की कढन न पावै॥


(१०) घनआनंद––ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के प्रधान स्तंभों में हैं। इनका जन्म संवत् १७४६ के लगभग हुआ था और ये संवत् १७९६ में नादिरशाही में मारे गए। ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीरमुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियो ने बादशाह से कही कि मीरमुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएँगे, यदि इनकी प्रेमिका सुजान नाम की वेश्या कहे तब गाएँगे। वेश्या बुलाई गई। इन्होंने उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इनके गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने इन्हे शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इसपर इन्हे विराग उत्पन्न हो गया और ये वृंदावन जाकर निंवार्क-संप्रदाय के वैष्णव हो गए और