पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३३९
रीतिकाल के अन्य कवि

बाहर से वह वियोग प्रशांत और गभीर है; न उसमें करवटें बदलना है, न सेज की आग की तरह तपना है, न उछल-उछल कर भागना है। उनकी "मौन मधि पुकार" है।

यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़ कर ऐसी वशवर्त्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे उस रूप में मोड़ सकते थे। इनके हृदय का योग पाकर भाषा को नूतन गतिविधि का अभ्यास हुआ और वह पहले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी। जब आवश्यकता होती थी तब ये उसे बँधी प्रणाली पर से हटाकर अपनी नई प्रणाली पर ले जाते थे। भाषा की पूर्व अर्जित शक्ति से ही काम न चला कर इन्होंने उसे अपनी ओर से शक्ति प्रदान की है। घनानंदजी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिये भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिंदी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।

लक्षण का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिंदी-कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए है जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग-वैचित्र्य की जो छटा इनमें दिखाई पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिक काल के उत्तरार्द्ध में, अर्थात् वर्तमान, काल की नूतन काव्यधारा में ही, 'अभिव्यंजना-वाद' के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग, लिए प्रकट हुई। घनानंद का प्रयोगवैचित्र्य दिखाने के लिये कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैं––

(क) अरसानि गही वह वानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।

(ख) ह्वै है सोऊ घरी भाग-उघरी अनंदघन सुरस बरसि, लाल! देखिहौ हरी हमे। ('खुले भाग्यवाली घड़ी' में विशेषण-विपर्यय)।

(ग) उघरो जग, छाय रहे घन-आनँद, चातक ज्यों तकिए अब तौ। (उघरो जग=संसार जो चारो ओर घेरे था वह दृष्टि से हट गया।)