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हिंदी-साहित्य का इतिहास

(घ) कहिए सु कहा, अब मौन भली, नहिं खोवते जौ हमैं पावते जू। (हमैं=हमारा हृदय)।

विरोधमूलक वैचित्र्य भी जगह जगह बहुत सुंदर मिलता है, जैसे––

(च) झूठ की सचाई छाक्यो, त्यों हित-कचाई पाक्यो, ताके गुनगन घनानंद कहा गनौं।

(छ) उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखौ, सुब्स सुदेस जहाँ रावरे बसत हो।

(ज) गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।

(झ) तेरे ज्यौं न लेखो, मोहिं मारत परेखो महा, जान घनानँद पै खोयबो लहत हैं।

इन उद्धरणो से कवि की चुभती हुई वचन-वक्रता पूरी पूरी झलकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि की उक्ति ने वक्र पथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।

भाव का स्रोत जिस प्रकार टकराकर कहीं कहीं वक्रोक्ति के छींटे फेंकता है उसी प्रकार कहीं कहीं भाषा के स्निग्ध, सरल और चलते प्रवाह के रुप में भी प्रकट होता है। ऐसे स्थलों पर अत्यंत चलती और प्रांजल ब्रजभाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है––

कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहाँ तुम?
हौ मन-मोहन, मोहे कहूँ न, बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वै, हाय! कछु उर आनौ कहो तुम?
आरतिवंत पपीहन को घन आनँद जू! पहिचानौ कहा तुम?


कारी कूर कोकिल कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै।
पैंढ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही,
चातक रे घातक ह्वै तूहू कान फोरि लैं॥