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हिंदी-साहित्य का इतिहास

मौन हू सो देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूक-भरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घन-आनँद यों मोहिं तुम्हैं पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौंन धौं भलोलिहे।
रूई दिए रहौगे कहाँ लौं बहरायबे की?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै॥


अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है,
मेरी न सुनत, दैया! आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब, सुझी नाहिं,
बुझी न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ॥
हौं तौ जानराय, जाने जाहु न, अजान यातें,
आनँद के घन छाया छाय उधरे रहौ।
मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैए नैकु,
हमैं खोय या बिधि हो! कौन धौं लहा लहौ॥


मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति,
दीठि-लासला के लोयननि लै लै आँजिहौ।
रति-रसना-सवाद पाँवड़े पुनीतकारी पाय,
चूमि चूमि कै कपोलनि सों माँजिहौ॥
जान प्यारे प्रान अंग-अंग-रुचि-रंगनि में,
बोरि सब अंगन अनंग-दुख भाँजिहौं।
कब घन-आनँद ढ़रौही बानि देखें,
सुधा हेत मन-घट दरकनि सुठि राँजिहौं॥
(राँजना=फूटे बरतन में जोड़ या टाँका लगाना।)