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रीतिकाल के अन्य कवि

निसि द्यौस खरी उतर माँझ अरी छबि रंगभरी मुरी चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हित ढोरनि बाहनि की॥
चट दै कटि पै बंट प्रान गए गति सों मति में अवगाहनि की।
घनआँनद जान लख्यों जब तें जक लागियै मोहि कराहनि की॥

इस अंतिम सवैये के प्रथम तीन चरणों में कवि ने बहुत सूक्ष्म कौशल दिखाया है। 'मुरि चाहनि' और 'तकि मोरनि' से यह व्यक्त किया गया है कि एक बार नायक ने नायिका की ओर मुड़कर देखा फिर देखकर मुड़ गए और अपना रास्ता पकड़ा। देख कर जब वे मुड़े तब नायिका का मन उनकी ओर इस प्रकार ढल पड़ा जैसे पानी नाली में दल जाता है। कटि में बल देकर प्यारे नायिका के मन में डूबने के भय से निकल गए।

घनानंद के ये दौ सवैये बहुत प्रसिद्ध है––

पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करो, सबही बिधि सुंदरता सरसौ॥
घनआनँद जीवनदायक हौ, कबौं मैरियौं पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुज्ञान के आँगन गो अँसुवान कौ लै बरसौ॥


अति सूधो सनेह को मारग हैं, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं॥
घनआनँद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़ें हो लला, मन लैहु पै देहु छटाँक नहीं।


('विरहलीला' से)

सलोने श्याम प्यारे क्यों न आवौ। दरस प्यासी मरैं तिनकौं जिवावौ॥
कहाँ हौ जू, कहाँ हौ जू, कहाँ हौ। लगे ये प्रान तुमसों हैं जहाँ हौ॥
रहौ किन प्रान प्यारे नैन आगैं। तिहारे कारनै दिनरात जागैं॥
सजन! हित मान कै ऐसी न कीजै! भई हैं बावरी सुध आय लीजै॥


(११) रसनिधि––इनका नाम पृथ्वीसिंह था और दतिया के एक