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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जमींदार थे। इनका संवत् १७१७ तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने बिहारी-सतसई के अनुकरण पर "रतनहजारा" नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो इन्होंने बिहारी के वाक्य तक रख लिए हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह बाबू जगन्नाथप्रसाद (छत्रपुर) ने किया है। "अरिल्ल और माँझो" का संग्रह भी खोज में मिला है। ये शृंगार-रस के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने फारसी कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुरुचि और साहित्यिक शिष्टता को अघात पहुँचता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता हुई हैं। कुछ दोहे उद्धृत किए जाते है––

अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस-भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय॥
लेहु न मजनू-गोर ढिग, कोऊ लैला नाम।
दरदवत को नेकु तौ, लेन देहू बिसराम॥


चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय ।
कलम छुवत कर आंगुरी कटी कटाछन जाय ।।
मनगयंद छवि मद-छके तोरि जंजीर भगात ।
हिय के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात ।।

(१२) महाराज विश्वनाथसिंह––ये रीवाँ के बड़े ही विद्यारसिक और भक्त नरेश तथा प्रसिद्ध कवि महाराज रघुराजसिंह के पिता थे। आप संवत् १८७० से लेकर १९१७ तक रीवाँ की गद्दी पर रहे। ये जैसे भक्त थे वैसे ही विद्या-व्यसनी तथा कवियों और विद्वानों के आश्रयदाता थे। काव्यरचना में भी ये सिद्धहस्त थे। यह ठीक है कि इनके नाम से प्रखात बहुत से ग्रंथ दूसरे कवियों के रचे हैं पर इनकी रचनाएँ भी कम नहीं हैं। नीचे इनकी