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हिंदी-साहित्य का इतिहास

को पालवंशी राजा देवपाल के समय में अर्थात् संवत् ९०० के आसपास माना है । यह समय उन्होने किस आधार पर स्थिर किया, पता नहीं । यदि सिद्धों की उक्त पुस्तक में मीनपा के राजा देवपाल के समय में होने का उल्लेख होता तो वे उस ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करते । चौरासी सिद्धो के नामों में हेर-फेर होना बहुत संभव हैं । हो सकता है कि गोरक्षपा और चौरंगीपा के नाम पीछे से जुड़ गए हो और मीनपा से मत्स्येद्र का नाम-साम्य के अतिरिक्त, कोई संबंध न हो। ब्रह्मानंद ने दोनों को बिल्कुल अलग माना भी है ( सरस्वती भवन स्टडीज )। संदेह यह देखकर और भी होता है कि सिद्धों की नामावली में और रस सिद्ध की जाति और देश का उल्लेख है, पर गोरक्ष और चौरंगी का कोई विवरण नहीं। अतः गोरखनाथ का समय निश्चित रूप से विक्रम की १० वी शताब्दी मानते नहीं बनता ।

महाराष्ट्र संत ज्ञानदेव ने, जो अलाउद्दीन के समय ( सवत् १३५८ ) में थे, अपने को गोरखनाथ की शिष्य-परम्परा में कहा है। उन्होंने यह परंपरा इस क्रम में बताई है -

आदिनाथ, मत्येंद्रनाथ, गोरक्षनाथ, गैनोनाथ, निवृत्तिनाथ और ज्ञानेश्वर ।

इस महाराष्ट्र-परंपरा के अनुसार गोरखनाथ का समय महाराज पृथ्वीराज के पीछे आता है। नाथ-परंपरा में मत्स्येद्रनाथ के गुरु जलंधरनाथ माने जाते हैं। भोट के ग्रंथों में भी सिद्ध जलंधर आदिनाथ कहे गए हैं। सब बातों का विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परम्परा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाडियों तथा और स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है। नाथ संप्रदाय के किसी ग्रंथ में जलंधर को बालनाथ भी कहा है । नमक के पहाड़ों के बीच ‘बालनाथ का टीला' बहुत दिनों तक प्रसिद्ध रहा। मत्स्येन्द्र जलंधर के शिष्य थे, नाथपंथियों की यह धारणा ठीक जान पड़ती है। मीनपा के गुरु चर्पटीनाथ हो सकते हैं, पर मत्स्येंद्र के गुरु जलंधर ही थे । सांकृत्यायन जी ने गोरख का जो समय स्थिर किया है, वह मीनपा का राजा देवपाल का समसामयिक और मत्स्येंद्र का पिता मानकर । मत्स्येंद्र का मीनपा से कोई संबंध न रहने पर उक्त समय मानने का कोई आधार नहीं रह जाता और पृथ्वी-