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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जीतन को करै केते उपाय औ दीरध दृष्टि सबै फल पावै।
भाखत है बिसुनाथ ध्रुवै नृप सो कबहूँ नहिं राज गँवावै॥


बाजि गज सोर रथ सुतुर कतार जेते,
प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजबंसवारे,
सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के॥
केते जातिवारे, केते केते देसवारे,
जीव स्वान सिंह आदि सैलवारे जे सिकार के।
डंका की धुकार द्वै सवार सबैं एक बार,
राज वार पार कार कोशलकुमार के॥


उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे।
हिमरितु प्रात पाय सब मिटिगे नभसर पसरे पुहकर तारे॥
जगवन महँ निकस्यो हरषित हिय बिचरन हेत दिवस मनियारो।
विश्वनाथ यह कौतुक निरखहु रविमनि दसहु दिसिनि उजियार॥


करि जो कर मैं कयलास लियो कसिकै अब नाक सिकोरत है।
दर तालन बीस भुजा झहराय झुको धनु को झकझोरत है॥
तिल एक हलै न हलै पुहुमी रिसि पीसि कै दाँतन तोरत है।
मन में यह ठीक भयो हमरे मद काको महेस न मोरत है॥

(१३) भक्तवर नागरीदासजी––यद्यपि इस नाम के कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उसमें सबसे प्रसिद्ध कृष्णगढ़-नरेश महाराज सावंतसिंह जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण १२ संवत् १७५६ में हुआ था। ये वाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। १३ वर्ष की अवस्था में इन्होंने बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। संवत् १८०४ में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। हम बीच में इनके पिता महाराज राजसिंह का देहांत हुआ। बादशाह