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रीतिकाल के अन्य कवि

अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णगढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया। पर जब वे कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। पर इस गृहकाल से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़-छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल॥
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरिभक्ति को सफल सुखन को सार॥
मैं अपने मन मूढ़ तैं डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें मति कबहूँ फिर जाय॥

वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो "कृष्णगढ़ के राजा" यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने 'नागरीदास', ('नागरी' शब्द श्रीराधा के लिये आता है) नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया––

सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढे दूरि उदास।
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास॥
एक मिलत भुजन भरि दौर दौर। इक टेरि बुलावत और ठौर॥

वृंदावन में उस समय वल्लभाचार्यजी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब जमुना किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव-बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इतना असह्य हो गया कि ये जमुना में कूद