पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३४८
हिंदी-साहित्य का इतिहास

पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

देख्यो श्रीवृंदाबिपिन पार। बिच बदति महा गंभीर धार॥
नहिं नाव, नाहीं कछु और दाव। हे दई! कहा कीजै उपाव॥
रहे वार लगन की लगै लाज। गए पारहि पूरै सकल काज॥
यह चित्त माहिं करि कै विचार। परे कूदि कृदि जलमध्य-धार॥

वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'वणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।

ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविता-काल सं॰ १७८० से १८१९ तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ "मनोरथमंजरी" संवत् १७८० में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् १८१४ में अश्विन शुक्ल १० को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंहजी को प्रतिष्ठित करके घरवार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्ण-भक्ति और ब्रजलीला-संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर ७३ पुस्तके संग्रहीत हैं, जिनके नाम ये है––

सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश (सं॰ १८००), पदप्रसंगमाला, ब्रजबैकुंठ तुला, ब्रजसार (संवत् १७९९), भोरलीला, प्रातरस-मंजरी, बिहार-चंद्रिका (सं॰ १७८८), भोजनानंदाष्टक, जुगलरस माधुरी, फूलविलास, गोधन-आगमन दोहन, अनदलग्नाष्टक, फागविलास, ग्रीष्म-विहार, पावसपचीसी, गोपीवैनविलास, रासरसलता, नैनरूपरस, शीतसार, इश्कचमन, मजलिस मंडन, अरिल्लाष्टक, सदा की माँझ, वर्षा ऋतु की माँझ, होरी की माँझ, कृष्णजन्मोत्सव कवित्त, प्रियाजन्मोत्सव कवित्त, साँझी के कवित्त, रास के कवित्त, चाँदनी के कवित्त, दिवारी के कवित्त, गोवर्धन-धारन के कवित्त, होरी के कवित्त, फागगोकुलाष्टक, हिंडोरा के कवित्त, वर्षा के कवित्त, भक्ति मगदीपिका (सं॰ १८०२), तीर्थानंद (१८१०), फाग बिहार (१८०८), बालविनोद, बन-विनोद, (१८०९), सुजानानंद (१८१०) भक्तिसार (१७९९) देहदशा, वैराग्यवल्ली, रसिक-रत्नावली (१७८२), कलिवैराग्य-वल्लरी (१७९५), अरिल्ल-पचीसी, छूटक-विधि, पारायण-विधि-प्रकाश