(१७९९), शिखनख, नखशिख, छूटक कवित्त, चचरियाँ रेखता, मनोरथमंजरी (१७८०), रामचरित्रमाला, पद-प्रबोधमाला, जुगल-भक्तिविनोद (१८०८), रसानुक्रम के दोहे, शरद की माँझ, साँझी फूल-बीनन संवाद, वसंत-वर्णन, रसनानुक्रम के कवित्त, फाग-खेलन समेतानुक्रम के कवित्त, निकुंज विलास (१७९४) गोविंद परचई, वनजन-प्रशंसा, छूटक दोहा, उत्सव-माला, पद-मुक्तावली।
इनके अतिरिक्त "वैन-विलास" और "गुप्तरस-प्रकाश" नाम की दो अप्राप्य पुस्तके भी है। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठको को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों या विषयों के कुछ पद्यों में वर्णन मात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो ५ या ७ अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जायँगे।अतः ऊपर लिखे नामों को पुस्तको के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतो को पाँच पाँच, दस दस, पचीस-पचीस पद्य मात्र समझिए। कृष्णभक्त कवियों की अधिकाश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियो की कृष्णलीला-संबंधिनी फुटकल उक्तियो से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखनेवाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिंकाश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य-रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग-ढंग भी कहीं-कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदो का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है, विशेषतः पदों की कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने देखिए––
(वैराग्य-सागर से)
काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरान के,
तै ही कहा? तेरी मूढ़ मूढ़ मति पंग की।