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हिंदी-साहित्य का इतिहास

प्राचीन वीरकाल के अंतिम-राजपूत वीर का चरित जिस रूप में और जिस प्रकार की भाषा में अंकित होना चाहिए था उसी रूप और उसी प्रकार की भाषा में जोधराज अंकित करने में सफल हुए हैं, इससे कोई संदेह नहीं। इन्हें हिंदी-काव्य की ऐतिहासिक परंपरा की अच्छी जानकारी थी, यह बात स्पष्ट लक्षित होती है। नीचे इनकी रचना के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते हैं––

कब हठ करै अलावदीं रणभँवर गढ़ आहि। कबै सेख सरनै रहैं बहुरयों महिमा साहि॥
सूर सोच मन में करी, पदवी लहौं न फेरि। जो हठ छडो राव तुम, उत न लजै अजमेरि॥
सरन राखि सेख न तजौ, सीस गढ़ देस। रानी राव हमीर को यह दीन्हौं उपदेस॥



कहँ पँवार जगदेव सीस आपन कर कट्ट्यो। कहाँ भोज विक्रम सुराव जिन पर दुख मिट्ट्यो॥
सवा भार नित करन कनक विप्रन को दीनो। रह्यो न रहिए कोय देव नर नाग सु चीनो॥
यह बात राव हम्मीर सूँ रानी इमि आसा कहीं। जो भई चक्कवै-मंडली सुनौ रवि दीखै नहीं॥


जीवन मरन सँजोग जग कौन मिटावै ताहि। जो जनमै संसार में अमर रहै नहिं आहि॥
कहाँ जैत कहँ सुर, कहाँ सोमेश्वर राणा‌। कहाँ गए प्रथिराज साह दल जीति न आणा॥
होतब मिटै न जगत में कीजै चिंता कोहि। आसा कहै हमीर सौं अब चूकौ मत सोहि॥

पुंडरीक-सुत-सुता तासु पद-कमल मनाऊँ।
बिसद बरन बर बसन विषद भूषन हिय ध्याऊँ॥
विषद जत्र सुर सुद्ध तंत्र तुबर जुत सोहै।
विषद ताल इक भुजा, दुतिय पुस्तक मन मोहै॥
गलि राजहंस हंसह चढ़ी रटी सुरन कीरति बिमल।
जय मातु सदा बरदायिनी, देहु सदा बरदान-बल॥

(१५) बख्शी हंसराज––ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् १७९९ में पन्ना में हुआ था। इनके पूर्वज बख्शी हरकिशुनजी पन्ना राज्य के मंत्री थे। हंसराजजी पन्नानरेश श्री अमानसिंह जी के दरबारियों में थे। ये ब्रज की व्यासगद्दी के "विजय सखी" नामक महात्मा के शिष्य थे, जिन्होंने इनका