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रीतिकाल के अन्य कवि

सांप्रदायिक नाम 'प्रेमसखी' रखा था। 'सखी-भाव' के उपासक होने के कारण इन्होंने अत्यंत प्रेम माधुर्यपूर्ण रचनाएँ की है। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं––

(१) सनेह-सागर, (२) विरहविलास, (३) रामचंद्रिका, (४) बारहमासा (संवत् १८११)

इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेह सागर' का संपादन श्रीयुत लाला भगवानदीनजी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए है।

'सनेह-सागर' नौ तरंगों में समाप्त हुआ हैं जिनमें कृष्ण की विविध लीलाएँ सार छंद में वर्णन की गई हैं। भाषा बहुत ही मधुर, सरस और चलती है। भाषा का ऐसा स्निग्ध सरल प्रवाह बहुत कम देखने में आता है। पद-विन्यास अत्यंत कोमल और ललित हैं। कृत्रिमता का लेश नहीं। अनुप्रास बहुत ही संयत मात्रा में और स्वाभाविक है। माधुर्य प्रधानतः संस्कृत की पदावली का नहीं, भाषा की सरल सुबोध पदावली का है। शब्द का भी समावेश व्यर्थ केवल भावपूर्णअर्थ नहीं है। सारांश यह कि इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा हैं। कल्पना भाव-विधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भाव-विकास के लिये अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेह-सागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उदधृत किए जाते हैं––

दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उडि उडि दीठि लगै ना॥
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनि कारी॥


इत तें चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनँद सों आए कुँवर कन्हैया॥
कसि भौहै, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अँग अँग उमंगि भरे आनँद, दरकति छिन छिन चोली॥


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