राज के समय के आसपास ही- विशेषतः कुछ पीछे-गोरखनाथ के होने का अनुमान दृढ़ होता है।
जिस प्रकार सिद्धों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है, उसी प्रकार नाथो की संख्या नौ। अब भी लोग 'नवनाथ' और 'चौरासी सिद्ध' कहते सुने जाते हैं। ‘गोरक्ष सिद्धांतसंग्रह' में मार्ग प्रवर्तको के ये नाम गिनाए गए हैं:-
नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन ।
इन नामों में नागार्जुन, चर्पट और जलंधर सिद्धो की परंपरा में भी है । नागार्जुन (सं० ७०२) प्रसिद्ध रसायनी भी थे । नाथपंथ में रसायन की सिद्धि है । नाथपंथ सिद्धों की परंपरा से ही छटकर निकला है, इसमें कोई संदेह नहीं।
इतिहास से इस बात का पता लगता है कि महमूद गजनवी के भी कुछ पहले सिंध और मुलतान में कुछ मुसलमान बस गए थे जिनमें कुछ सूफी भी थे । बहुत से सूफियों ने भारतीय योगियों से प्राणायाम आदि की क्रियाएँ सीखीं, इसका उल्लेख मिलता है । अतः गोरखनाथ चाहे विक्रम की १०वीं शताब्दी में हुए हों चाहे १३वीं में, उनका मुसलमानों से परिचित होना अच्छी तरह मानी जा सकती है; क्योंकि जैसा कहा जा चुका है, उन्होने अपने पंथ का प्रचार पंजाब और राजपूताने की ओर किया ।
इतिहास और जनश्रुति से इस बात का पता लगता है कि सूफी फकीरों और पीरो के द्वारा इसलाम को जनप्रिय बनाने का उद्योग भारत में बहुत दिनो तक चलता रहा । पृथ्वीराज के पिता के समय में ख्वाजा मुईनुद्दीन के अजमेर आने और अपनी सिद्धि का प्रभाव दिखाने के गीत मुसलमानों में अब तक गाए जाते हैं । चमत्कारों पर विश्वास करनेवाली भोली-भाली जनता के बीच अपना प्रभाव फैलाने में इन पीरो और फकीरो को सिद्धों और योगियों से मुकाबला करना पड़ा जिनका प्रभाव पहले से जमा चला आ रहा था । भारतीय मुसलमानों के बीच, विशेषतः सूफियों की परम्परा में, ऐसी अनेक कहानियाँ चली जिनमें किसी पीर ने किसी सिद्ध या योगी को करामात में पछाड़ दिया । कई योगियों के साथ ख्वाजा मुईनुद्दीन का भी ऐसा ही करामाती दंगल कहा जाता है ।