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रीतिकाल के अन्य कवि

से इनका कविता-काल विक्रम की १८ वीं शताब्दी का अंतिम भाग आता है। ये भाषा के सत्कवि होने के अतिरिक्त संस्कृत में भी सुंदर रचना करते थे जिसका प्रमाण इनका लिखा 'श्रीस्तोत्र' है। इन्होंने "समय-प्रबंध-पदावली" नामक एक ग्रंथ लिखा है जिसमें ३१३ बहुत ही भाव भरे पद है नीचे कुछ पद उद्धृत किए जाते हैं––

लाल तेरे लोभी लोलुप नैन।
केहि रस-छकनि छके हौ छबीले मानत नाहिंन चैन।
नींद नैन घुरि घुरि आवत अति, घोरि रही कछु नैन॥
अलबेली अलि रस के रसिया, कत बितरह ये बैन।


बने नवल प्रिय प्यारी।
सरद रैन उजियारी॥

सरद रैन सुखदैन मैनमय जमुनातीर सुहायो।
सकल कला-पूरन सति सीतल महि-मंडन पर आयो॥
अतिमय सरस सुगंध मंद गति बहुत पवन रुचिकारी।
नव नव रूप नवल नव जोबन बने नवल पिय प्यारी॥

(१८) चाचा हित वृंदावन दास––ये पुष्कर क्षेत्र के रहनेवाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् १७६५ में उत्पन्न हुए थे। ये राधावल्लभीय गोस्वामी हितरुपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईंजी के पिता के गुरुभ्राता होने के कारण गोसाईजी की देखादेखी सब लोग इन्हें "चाचाजी" कहने लगे। ये महाराज नागरीदासजी के भाई बहादुरसिंहजी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन हुआ तब ये कृष्णगढ़ छोड़कर वृंदावन चले आए और अंत समय तक वही रहे। संवत् १८०० से लेकर सवत् १८४४ तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध हैं। इनमें से २०००० के लगभग पद्य तो इनके मिले है। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समय प्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया