पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३५६
हिंदी-साहित्य का इतिहास

है। छंदलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा हैं। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथ में इनके बहुत से पद संग्रहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राज-पुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।

इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता हैं। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती हैं। इनके दो पद नीचे दिए जाते है––

(मनिहारी लीला से)

मिठबोलनी नवल मनिहारी।
भौहैं गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी।
चुरी लखि मुख तें कहै, घूँघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें दुरि दरसत यहि भाँति॥
चुरो बड़ो है मोल को, नगर न गाहक कोय।
मो फेरी खाली परी, आई सब घर टोय॥


प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहीं भरोसे ह्वै पूछत हौं, कै चतुराई करि जु हँसत हौ॥
लीजै, परखि स्वरूप आपनो, पुतरिन में तुमहीं तौ लसत हौ।
वृंदावन हित रूप रसिक तुम, कुंज लड़ावत हिय हुलसत हौ॥

(१९) गिरिधर कविराज––इनका कुछ भी वृत्तांत ज्ञात नहीं। नाम से भाट जान पड़ते हैं। शिवसिंह ने इनका जन्म संवत् १७७० दिया है जो संभवतः ठीक हो। इस हिसाब से इनकी कविताकाल संवत् १८०० के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। अपढ़ लोग भी दो चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी भाषा में तथ्य मात्र का कथन। इनमें न तो अनुप्रास आदि द्वारा भाषा की सजावट है, न उपमा उत्पेक्षा आदि का चमत्कार। कथन की पुष्टि मात्र के लिये (अलंकार की दृष्टि से नहीं) दृष्टांत आदि इधर उधर मिलते हैं। कहीं