पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/३८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३५७
रीतिकाल के अन्य कवि

कहीं, पर बहुत कम, कुछ अन्योक्ति का सहारा इन्होंने लिया है। इन सब बातों के विचार से ये कोरे 'पद्यकार' ही कहे जा सकते हैं, सूक्तिकार भी नहीं। वृंद कवि में और इनमें यही अंतर हैं। वृंद ने स्थान-स्थान पर अच्छी घटती हुई और सुंदर उपमाओं आदि का भी विधान किया है। पर इन्होंने कोरा तथ्य-कथन किया है। कहीं कहीं तो इन्होंने शिष्टता का ध्यान भी नहीं रखा है। पर घर गृहस्थी के साधारण व्यवहार, लोकव्यवहार आदि का बड़े स्पष्ट शब्दों में इन्होंने कथन किया है। यही स्पष्टता इनकी सर्वप्रियता का एक मात्र कारण हैं। दो कुंडलियाँ दी जाती हैं––

साई बेटा बाप के बिखरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज॥
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे।
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे॥
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई?


रहिए लटपट काटि दिन बरु धामहि में सोय।
छाहँ न बाकी बैठिए जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहे।
जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै॥
कह गिरिधर कविराय छाह मोटे की गहिए।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिए॥

(२०) भगवत रसिक––ये टट्टी संप्रदाय के महात्मा स्वामी ललितमोहनीदास के शिष्य थे। इन्होंने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और निर्लिप्त भाव से भगवद्भजन में ही लगे रहे। अनुमान से इनका जन्म संवत् १७९५ के लगभग हुआ। अतः इनका रचनाकाल सवत् १८३० और १८५० के बीच माना जा सकता है। इन्होंने अपनी उपासना से सबंध रखनेवाले अनन्य-प्रेम-रसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलिया, छप्पय आदि रचे है जिनमें एक ओर तो वैराग्य का