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हिंदी-साहित्य का इतिहास

लेकर दोहा चौपाई तक मौजूद हैं। ग्रंथारंभ में अकबरअली खाँ की प्रशंसा में जो बहुत से कवित्त इन्होंने कहे हैं, उनसे इनकी चमत्कार-प्रियता स्पष्ट प्रकट होती है। उनमें परिसंख्या अलंकार की भरमार है। गुमानजी अच्छे साहित्यमर्मज्ञ कलाकुशल थे, इसमें कोई संदेह नहीं। भाषा पर भी इनका अधिकार था। जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं है उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर हैं। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है वहाँ की वाक्यविली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। बिना मूल श्लोक सामने आए ऐसे स्थलों का स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन ही है। अतः सारी पुस्तक के सबंध में यही कहना चाहिए कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है। संस्कृत के भावो के सम्यक् अवतरण में यह सफलता गुमान ही के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। रीतिकाल के जिन जिन कवियों ने संस्कृत से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है उनमें से बहुत से असफल हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में जिस मधुर रूप में ब्रजभाषा का विकास हुआ वह सरल रसव्यंजना के तो बहुत ही अनुकून हुआ पर जटिल भावों और विचारों के प्रकाशन में वैसा समर्थ नहीं हुआ। कुलपति मिश्र ने अपने "रसरहस्य" में काव्यप्रकाश का जो अनुवाद किया हैं उसमें भी जगह जगह इसी प्रकार की अस्पष्टता है।

गुमानजी उत्तम श्रेणी के कवि थे, इसमें संदेह नहीं। जहाँ वे जटिल भाव भरने की उलझन में नहीं पड़े हैं वहाँ की रचना अत्यंत मनोहारिणी हुई है। कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं––

दुर्जन की हानि, बिरधापनोई करै पीर,
गुन लोप होत एक मोतिन के हार ही।
टूटै मनिमालै निरगुन गाय ताल लिखै,
पोथिन ही अंक, मन कलह विचार ही॥
संकर बरन पसु पच्छिन में पाइयत,
अलक ही पारैं असभंग निरधार ही।
चिर चिर राजौ राज अली अकबर, सुरराज,
के समाज जाके राज पर बारही॥